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कालाष्टमी कथा

कालाष्टमी कथा | Kalashtami Vrat Katha in Hindi

कालाष्टमी की कथा के अनुसार, शिवपुराण के अनुसार, कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को कालभैरव का जन्म हुआ था। मान्यता है कि कालभैरव का व्रत रखने से उपासक की सभी इच्छाएं पूरी होती हैं और जादू-टोना तथा तंत्रमंत्र का भय समाप्त हो जाता है। ज्योतिष के अनुसार, कालभैरव की पूजा से सभी नवग्रहों के दोष समाप्त हो जाते हैं और उनका अशुभ प्रभाव दूर हो जाता है।

स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की इस अदृश्य लड़ाई का इतिहास अति प्राचीन है। यह केवल मनुष्यों के बीच ही नहीं, बल्कि देवताओं के बीच भी होती रही है। एक समय की बात है जब भगवान ब्रह्मा, विष्णु, और महेश (शिव) के बीच यह विवाद उठा कि उनमें से कौन सबसे श्रेष्ठ है। इस विवाद को सुलझाने के लिए समस्त देवी-देवताओं की एक सभा बुलाई गई।

सभा के विचार-विमर्श के बाद, भगवान शिव और विष्णु इस निष्कर्ष से सहमत हो गए, लेकिन ब्रह्मा जी संतुष्ट नहीं हुए। ब्रह्मा जी ने भगवान शिव की अवमानना की, जिससे शिव अत्यंत क्रोधित हो गए। इस क्रोध से ही कालभैरव का अवतार हुआ।

कालभैरव काले कुत्ते पर सवार होकर और हाथ में दंड लेकर सभा में प्रकट हुए। उन्होंने ब्रह्मा जी के एक सिर को अलग कर दिया, जिससे ब्रह्मा जी के पास अब केवल चार सिर ही रह गए। ब्रह्मा जी ने अपने अपराध की माफी मांगी और कालभैरव की क्रोध से बचने के लिए प्रार्थना की।

माफी के बाद, भगवान शिव ने पुनः अपने सामान्य रूप में लौटे, लेकिन कालभैरव पर ब्रह्म हत्या का आरोप लगा। इस पाप से मुक्ति पाने के लिए कालभैरव कई वर्षों तक भटकते रहे और अंततः वाराणसी में पहुंचे, जहां उन्हें इस पाप से मुक्ति मिली।

कुछ कथाओं में श्रेष्ठता की लड़ाई केवल ब्रह्मा और विष्णु के बीच ही बताई जाती है। भगवान कालभैरव को महाकालेश्वर और डंडाधिपति भी कहा जाता है, और वाराणसी में दंड से मुक्ति मिलने के कारण उन्हें दंडपानी भी कहा जाता है।

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