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महालक्ष्मी व्रत कथा
महालक्ष्मी व्रत कथा | Vaibhav Lakshmi Vrat Katha
हिंदू धर्म में महालक्ष्मी व्रत का विशेष महत्व है। भाद्रपद शुक्ल अष्टमी से शुरू होकर 16 दिनों तक चलने वाले इस व्रत में मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है। इस व्रत के माध्यम से सुख, समृद्धि और धन की प्राप्ति होती है। महालक्ष्मी व्रत से जुड़ी कई लोककथाएं हैं, जिनमें से कुछ अत्यंत प्रचलित हैं।
महाभारत काल में एक बार महर्षि वेदव्यास ने हस्तिनापुर का दौरा किया। महाराज धृतराष्ट्र ने उन्हें अपने राजमहल में आमंत्रित किया। रानी गांधारी और रानी कुंती ने मुनि वेदव्यास से पूछा कि उनके राज्य में धन की देवी मां लक्ष्मी और सुख-समृद्धि कैसे बनी रहे। मुनि वेदव्यास ने उत्तर दिया कि यदि आप अपने राज्य में स्थायी समृद्धि चाहते हैं तो प्रतिवर्ष अश्विनी कृष्ण अष्टमी को विधिवत श्री महालक्ष्मी का व्रत करना चाहिए।
इस सलाह को सुनकर रानी गांधारी और रानी कुंती दोनों ने महालक्ष्मी व्रत करने का संकल्प लिया। रानी गांधारी ने अपने महल के आंगन में 100 पुत्रों की सहायता से एक विशालकाय हाथी का निर्माण कराया और नगर की सभी महिलाओं को पूजा के लिए आमंत्रित किया, लेकिन रानी कुंती को निमंत्रण नहीं भेजा। जब सभी महिलाएं गांधारी के महल में पूजा के लिए जाने लगीं, रानी कुंती उदास हो गई।
रानी कुंती की उदासी देखकर पांचों पांडवों ने कारण पूछा। कुंती ने अपनी परेशानी बताई, तब अर्जुन ने कहा, “माता, आप महालक्ष्मी पूजन की तैयारी कीजिए, मैं आपके लिए हाथी लाता हूँ।” ऐसा कहकर अर्जुन इंद्र के पास गए और इंद्रलोक से ऐरावत हाथी लेकर आए।
जब नगरवासियों को पता चला कि रानी कुंती के महल में स्वर्ग से ऐरावत हाथी आया है, तो पूरे नगर में हलचल मच गई। हाथी को देखने के लिए लोग उमड़ पड़े और सभी विवाहित महिलाओं ने विधिपूर्वक महालक्ष्मी की पूजा की।
पौराणिक मान्यता है कि इस व्रत की कथा को 16 बार सुनना और पूजा की हर सामग्री को 16 बार अर्पित करना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
महालक्ष्मी की दूसरी पौराणिक कथा
प्राचीन काल में एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था, जो भगवान विष्णु का अत्यंत भक्त था। उसकी भक्ति से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उसे दर्शन दिए और किसी भी वरदान की मांग करने को कहा। ब्राह्मण ने अपनी इच्छा प्रकट की कि उसके घर में हमेशा मां लक्ष्मी का वास रहे। विष्णुजी ने कहा कि लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए उसे थोड़ी मेहनत करनी होगी। उन्होंने ब्राह्मण को बताया कि मंदिर के सामने एक महिला उपले पाथती है, वह देवी लक्ष्मी ही हैं। यदि वह महिला उसके घर आई तो उसका घर धन-धान्य से भर जाएगा। इतना कहकर भगवान विष्णु अदृश्य हो गए।
अगले दिन सुबह, ब्राह्मण मंदिर के सामने बैठ गया और जब देवी लक्ष्मी उपले पाथने आईं, तो उसने उन्हें अपने घर आने का निमंत्रण दिया। लक्ष्मीजी ने यह सुनकर समझा कि यह सब विष्णुजी की योजना है। देवी लक्ष्मी ने कहा कि यदि वह 16 दिन तक महालक्ष्मी व्रत को विधिपूर्वक करेगा और रात-दिन चंद्रमा को अर्घ्य देगा, तो वह उसके घर आएंगी। ब्राह्मण ने देवी के आदेश के अनुसार व्रत और पूजन किया और उत्तर दिशा की ओर मुख करके लक्ष्मीजी को पुकारा।
अपने वचन को पूरा करने के लिए देवी लक्ष्मी प्रकट हुईं और उन्होंने ब्राह्मण के सभी कष्ट दूर कर दिए तथा उसके घर को सुख-समृद्धि से भर दिया।
महालक्ष्मी की तीसरी पौराणिक कथा
एक बार भगवान विष्णु ने भूतल पर जाने का निर्णय लिया। माता लक्ष्मी ने भी उनके साथ चलने की इच्छा जताई। भगवान विष्णु ने उन्हें आगाह किया कि वे एक विशेष शर्त पर ही उन्हें साथ ले जा सकते हैं। लक्ष्मी ने तुरंत ही स्वीकार कर लिया। भगवान विष्णु ने कहा कि जो भी मैं कहूं, उसे वैसा ही करना होगा। माता लक्ष्मी ने हामी भर दी और दोनों भूतल पर आ गए।
जब भगवान विष्णु ने माता से कहा कि वे दक्षिण दिशा की ओर जा रहे हैं और उन्हें वहीं रुकना होगा, तो लक्ष्मी को जिज्ञासा हुई कि दक्षिण दिशा में ऐसा क्या है, जो भगवान उन्हें वहाँ नहीं ले जाना चाहते। उनकी चंचल प्रवृत्ति के कारण, लक्ष्मी ने जल्दी से वहां रुकना अस्वीकार कर दिया और भगवान विष्णु के पीछे चल पड़ीं। रास्ते में उन्हें एक सुंदर सरसों के खेत और गन्ने के खेत मिले। उन्होंने खेतों से फूल तोड़े और गन्ना चूसने लगीं, इसी दौरान भगवान विष्णु वापस लौटे और माता लक्ष्मी को खेतों में देख कर क्रोधित हो गए।
भगवान विष्णु ने कहा कि लक्ष्मी ने शर्त का उल्लंघन किया है, और उन्हें 12 वर्षों तक किसान की सेवा करने का शाप दिया। भगवान विष्णु के चले जाने के बाद, लक्ष्मी को किसान के घर रहना पड़ा।
एक दिन, लक्ष्मी ने किसान की पत्नी को देवी लक्ष्मी की पूजा करने को कहा और बताया कि इससे वह जो भी मांगेगी, उसे मिलेगा। किसान की पत्नी ने वैसा ही किया और शीघ्र ही उनका घर धन-धान्य से भर गया। 12 साल के अंत में, जब भगवान विष्णु ने लक्ष्मी को लेने के लिए आए, किसान ने उन्हें न जाने देने की जिद की। लक्ष्मी ने कहा कि अगर किसान कार्तिक कृष्ण पक्ष की तेरस को विधिपूर्वक पूजा करेगा, तो वह उसके घर में ही रहेंगी, लेकिन इस दौरान वह उसे नहीं दिखेंगी।
किसान ने पूजा की और एक कलश स्थापित किया जिसमें कुछ धन रखा। इस प्रकार, तेरस के दिन की पूजा के बाद, किसान का घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया। तब से धनतेरस पर देवी लक्ष्मी की पूजा करने की परंपरा शुरू हो गई।
बृहस्पतिवार व्रत कथा
बृहस्पतिवार व्रत कथा | Brihaspati Var Vrat Katha in Hindi
हिंदू कैलेंडर के अनुसार, सप्ताह के सात दिनों का विशेष महत्व होता है, और प्रत्येक दिन को एक विशेष देवता की पूजा के लिए निर्धारित किया गया है। गुरुवार का दिन भगवान विष्णु और बृहस्पति देव की पूजा के लिए समर्पित है। बृहस्पति देव ज्ञान, समृद्धि और भाग्य के देवता माने जाते हैं। यदि किसी की कुंडली में गुरु ग्रह की स्थिति कमजोर है, तो उसे अनुराधा नक्षत्र से बृहस्पतिवार से व्रत शुरू कर सात गुरुवार का व्रत करना चाहिए। यह व्रत धन, समृद्धि और संतान प्राप्ति के लिए फायदेमंद होता है।
पौराणिक कथा
किसी समय की बात है, एक नगर में एक व्यापारी रहता था। व्यापारी बहुत सज्जन और दानी था, लेकिन उसकी पत्नी बहुत ही कंजूस थी। व्यापारी जहां दान-पुण्य में दिल खोल कर खर्च करता था, वहीं उसकी पत्नी साधुओं और ब्राह्मणों का आदर नहीं करती थी। एक दिन बृहस्पतिदेव साधु के भेष में व्यापारी के घर पहुंचे।
व्यापारी घर पर नहीं था, इसलिए पत्नी ने साधु का अपमान किया और कहा कि धन की अधिकता के कारण वह परेशान है और उसे इस धन का नाश करने का उपाय बताओ। बृहस्पतिदेव ने उसे सलाह दी कि वह अपने घर को हर गुरुवार को गोबर से लीपे, गुरुवार को अपने बाल पीली मिट्टी से धोएं, कपड़े भी इस दिन धोएं, और अपने पति से भी गुरुवार को हजामत करवाने को कहें। साथ ही, उन्होंने कहा कि वह भोजन में मांस और मदिरा का सेवन करें। यह कहकर बृहस्पतिदेव अंतर्ध्यान हो गए।
व्यापारी की पत्नी ने बृहस्पतिदेव की सलाह को मान लिया और गुरुवार को घर को गोबर से लीपने लगी। तीसरे गुरुवार तक, उनके घर में कंगाली आ गई और वह खुद भी मृत्यु को प्राप्त हो गई। व्यापारी की एक बेटी थी, जो अब सड़क पर आ गई। व्यापारी ने अपनी बेटी को लेकर दूसरे गांव में शरण ली और लकड़ी काटकर बेचकर जीवन यापन करने लगा।
एक दिन, जब व्यापारी जंगल में अपने दुखों को लेकर विलाप कर रहा था, बृहस्पतिदेव फिर साधु के रूप में उसके सामने प्रकट हुए और बृहस्पति पूजा और कथा पाठ करने की सलाह दी। बृहस्पति देव के आशीर्वाद से व्यापारी की लकड़ी अच्छी कीमत पर बिक गई। व्यापारी ने बृहस्पति देव की आराधना शुरू की और व्रत किया, लेकिन सात गुरुवार के व्रत की प्रक्रिया के बीच उसने एक गुरुवार को पूजा और उपवास करना भूल गया।
उसी दिन राजा ने भोज के लिए सभी को निमंत्रण दिया था। व्यापारी और उसकी बेटी देरी से पहुंचे और राजा ने उन्हें अपने परिवार के साथ भोजन कराया। बृहस्पति देव की माया देखिए कि रानी का हार चोरी हो गया और व्यापारी और उसकी बेटी पर चोरी का आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया गया। व्यापारी ने बृहस्पति देव को याद किया, और बृहस्पति देव ने कहा कि वह अब भी बृहस्पतिवार का उपवास रख सकते हैं, कथा सुन सकते हैं और गुड़-चना का प्रसाद बांट सकते हैं।
व्यापारी ने जेल में दो पैसे प्राप्त किए और गुड़-चना लाने के लिए एक महिला को भेजा। महिला ने कहा कि उसके बेटे की शादी है, इसलिए वह जल्दी में है। फिर व्यापारी ने एक और महिला से गुड़-चना लाने को कहा, जिसकी संतान की मृत्यु हो गई थी। महिला ने गुड़-चना लाकर कथा सुनी और अपने बेटे के मुंह में प्रसाद डाला, जिससे वह पुनः जीवित हो उठा।
राजा को भी बृहस्पति देव ने सपने में आकर बताया कि हार खोया नहीं है बल्कि वही खूंटी पर लटका है। राजा ने निर्दोष पिता-पुत्री को जेल से मुक्त किया और व्यापारी को बहुत सारा धन प्रदान किया। राजा ने व्यापारी की बेटी का विवाह एक अच्छे धनी परिवार में करवाया और व्यापारी को सुख-समृद्धि प्राप्त हुई।
इस प्रकार, जो भी व्यक्ति बृहस्पतिवार को व्रत करता है और कथा सुनता है, उसे बृहस्पति देव की कृपा प्राप्त होती है और जीवन में सुख-समृद्धि बनी रहती है।
प्रदोष व्रत कथा
प्रदोष व्रत कथा | Pradosh Vrat Katha in Hindi
प्रदोष व्रत की कथा प्रायः विभिन्न वारों के अनुसार सुनाई जाती है, लेकिन एक विशेष कथा बहुत प्रचलित है।
एक समय की बात है, एक छोटे से गांव में एक गरीब विधवा ब्राह्मणी और उसका एकलौती संतान रहता था। ब्राह्मणी और उसके पुत्र दिन-रात भिक्षा मांगते और जो भी मिल जाता, उसी से अपनी भूख मिटाते। ब्राह्मणी ने वर्षों से प्रदोष व्रत का पालन किया था, जिसके चलते उसकी भक्ति और तपस्या से भगवान शिव हमेशा प्रभावित रहते थे।
एक दिन, त्रयोदशी तिथि पर, ब्राह्मणी का पुत्र गंगा स्नान के लिए निकला। स्नान के बाद, जब वह घर की ओर लौट रहा था, उसे लुटेरों का एक गिरोह मिल गया। लुटेरों ने उसका सारा सामान लूट लिया और उसे घायल कर छोड़ दिया। कुछ समय बाद, राज्य के सैनिक उस स्थान पर पहुंचे और उन्होंने ब्राह्मणी के पुत्र को लुटेरा समझकर राजा के सामने पेश कर दिया। राजा ने बिना किसी जांच के उसे कारागार में डाल दिया।
रात को राजा को स्वप्न में भगवान शिव ने दर्शन दिए और उन्हें आदेश दिया कि ब्राह्मणी के पुत्र को तुरंत मुक्त किया जाए। राजा ने स्वप्न को गंभीरता से लिया और अगली सुबह कारागार पहुंचकर युवक को रिहा कर दिया।
राजमहल लौटने पर, राजा ने युवक को सम्मानित किया और उससे दान मांगने के लिए कहा। युवक ने राजा से केवल एक मुठ्ठी धान मांगी। राजा उसकी यह मांग सुनकर आश्चर्यचकित हुए और पूछा कि केवल एक मुठ्ठी धान से क्या होगा, और भी कुछ मांग लो। युवक ने विनम्रता से जवाब दिया कि यह धान उसके लिए संसार का सबसे मूल्यवान धन है। वह इसे अपनी माता को देगा, जो इसका उपयोग भगवान शिव को भोग अर्पित करने में करेंगी। फिर वे खुद इसे खाकर अपनी भूख को शांत करेंगे।
राजा युवक की भक्ति और विनम्रता से अत्यंत प्रभावित हुए। उन्होंने मंत्री को आदेश दिया कि ब्राह्मणी को सम्मानपूर्वक दरबार में लाया जाए। जब ब्राह्मणी दरबार में पहुंची, तो राजा ने उसे पूरी घटना की जानकारी दी और उसके पुत्र की प्रशंसा की। उन्होंने ब्राह्मणी के पुत्र को अपना सलाहकार नियुक्त किया, और इस प्रकार, निर्धन ब्राह्मणी और उसके पुत्र का जीवन बदल गया।
सोमवार व्रत कथा
सोमवार व्रत कथा | Somvar Vrat Katha in Hindi
भारतीय परंपरा और हिंदू धर्म में तीज-त्योहारों का अपना विशेष महत्व है। हिंदू धर्म में हर दिन किसी न किसी देवता की पूजा की जाती है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, सोमवार को भगवान शिव का दिन माना जाता है। इस दिन शिवजी की पूजा करने से उनके आशीर्वाद की प्राप्ति होती है। सोमवार का व्रत रखने से भगवान शिव जल्दी प्रसन्न होते हैं और भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। विशेषकर विवाहित महिलाएं अपने वैवाहिक जीवन की सुख-समृद्धि के लिए और अविवाहित कन्याएं योग्य वर प्राप्ति के लिए यह व्रत करती हैं।
ज्योतिष के अनुसार, सोमवार का व्रत चार प्रकार से किया जाता है: सोमवार व्रत, प्रदोष व्रत, सावन सोमवार व्रत और सोलह सोमवार व्रत। इन व्रतों के द्वारा भगवान शिव की विधिवत पूजा और व्रत कथा का पाठ किया जाता है।
पौराणिक कथा
एक समय की बात है, एक गांव में एक धनी साहूकार रहता था। उसके पास अपार धन-संपत्ति थी, परंतु संतान का सुख नहीं था। संतान की प्राप्ति की इच्छा से साहूकार प्रत्येक सोमवार भगवान शिव का व्रत रखता था। वह विधिपूर्वक शिव-पार्वती की पूजा करता और शाम को शिवलिंग पर दीप जलाता। एक दिन माता पार्वती ने साहूकार की भक्ति से प्रभावित होकर भगवान शिव से उसकी मनोकामना पूरी करने का आग्रह किया।
भगवान शिव ने कहा कि संसार में प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार फल मिलता है, लेकिन माता पार्वती के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने साहूकार को पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। हालांकि, उन्होंने बताया कि उसका पुत्र केवल 12 वर्ष तक जीवित रहेगा।
साहूकार ने पुत्र प्राप्ति के बाद भी अपनी पूजा-अर्चना जारी रखी। कुछ समय बाद उसकी पत्नी ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। साहूकार को पहले से ही पता था कि उसका पुत्र केवल 12 वर्ष तक जीवित रहेगा, इसलिए वह प्रसन्न नहीं था। जब उसका पुत्र 11 वर्ष का हुआ, तो साहूकार ने उसे काशी शिक्षा प्राप्ति के लिए भेज दिया।
रास्ते में, साहूकार का पुत्र और उसका मामा एक राजा के विवाह समारोह में पहुंचे। राजा अपनी पुत्री का विवाह एक ऐसे राजकुमार से कर रहा था जो काना था। राजकुमार के पिता ने साहूकार के पुत्र को अस्थायी रूप से दूल्हा बनने के लिए मना लिया। साहूकार के पुत्र ने दूल्हे का रूप धारण कर विवाह की रस्में पूरी कीं, लेकिन उसने दुल्हन के कपड़ों पर एक संदेश लिख दिया कि वह असली दूल्हा नहीं है, और असली दूल्हा काना है।
विवाह के बाद, साहूकार का पुत्र काशी चला गया और शिक्षा प्राप्त करने लगा। जब वह 12 वर्ष का हुआ, उसकी मृत्यु हो गई। उसके मामा ने यज्ञ पूरा करने के बाद दुखी मन से विलाप किया। उसी समय भगवान शिव और माता पार्वती वहां से गुजर रहे थे। माता पार्वती ने साहूकार के पुत्र को जीवित करने का अनुरोध किया। शिवजी ने माता पार्वती के आग्रह पर उसे जीवनदान दिया।
साहूकार का पुत्र जीवित होकर वापस अपने घर लौटा। उसका विवाह पूर्व में जिस लड़की से हुआ था, वह भी उसे पहचान कर उसके साथ घर आ गई। साहूकार का परिवार फिर से सुखी और संपन्न जीवन व्यतीत करने लगा।
करवा चौथ व्रत कथा – Karwa Chauth katha In Hindi
Karwa Chauth Vrat Katha
Karwa Chauth Vart Katha in Hindi
प्राचीन काल की बात है, एक गांव में सात भाइयों की एक बहन थी, जिसकी शादी एक राजा से हुई थी। विवाह के बाद, पहला करवा चौथ आया और रानी अपने मायके लौट आई। उस दिन उसने करवा चौथ का व्रत रखा, लेकिन लंबे समय तक भूख और प्यास सहन नहीं कर पाई। चाँद की प्रतीक्षा में, वह बेचैन हो गई। उसकी यह स्थिति देख, उसके सातों भाइयों ने उसकी पीड़ा कम करने के लिए एक पीपल के पेड़ के पीछे एक दर्पण से नकली चाँद की छाया दिखा दी। बहन को लगा कि असली चाँद दिखाई दे गया और उसने अपना व्रत समाप्त कर दिया।
इसके तुरंत बाद, रानी के पति की तबियत बिगड़ने लगी। यह खबर सुनते ही रानी अपने ससुराल की ओर रवाना हो गई। रास्ते में उसकी मुलाकात शिव और पार्वती से हुई। माँ पार्वती ने उसे बताया कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है और इसका कारण उसकी अपनी गलती है। रानी को पहले तो समझ नहीं आया, लेकिन जब उसे पूरी बात का पता चला, तो उसने माँ पार्वती से अपने भाइयों की भूल के लिए क्षमा मांगी।
माँ पार्वती ने रानी को बताया कि उसका पति तब ही जीवित हो सकता है जब वह विधिपूर्वक करवा चौथ का व्रत पुनः पूरी श्रद्धा से करेगी। देवी ने रानी को व्रत की सभी विधियों के बारे में विस्तार से समझाया। रानी ने देवी माँ की बताई विधि के अनुसार करवा चौथ का व्रत किया और अपने पति को पुनः प्राप्त किया।
करवा चौथ की कई कहानियां प्रचलित हैं, लेकिन इस कथा का उल्लेख शास्त्रों में भी मिलता है, जिससे इसकी महत्ता आज भी बनी हुई है। द्रोपदी द्वारा शुरू किए गए करवा चौथ व्रत की भी वही मान्यता है। द्रोपदी ने अपने पति की लंबी उम्र के लिए यह व्रत रखा था, और निर्जल व्रत रखा था। माना जाता है कि पांडवों की विजय में द्रोपदी के इस व्रत का भी महत्वपूर्ण योगदान था।
॥दोहा॥
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, बिनय करै सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करै हनुमान॥
॥चौपाई॥
जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी॥
जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै॥
जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि बिस्तारा॥
आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका॥
जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा॥
बाग उजारि सिन्धु महं बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा॥
अक्षय कुमार मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा॥
लाह समान लंक जरि गई। जय जय धुनि सुर पुर महं भई॥
अब विलम्ब केहि कारण स्वामी। कृपा करहुं उर अन्तर्यामी॥
जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होइ दु:ख करहुं निपाता॥
जय गिरिधर जय जय सुख सागर। सुर समूह समरथ भटनागर॥
ॐ हनु हनु हनु हनु हनुमन्त हठीले। बैरिहिं मारू बज्र की कीले॥
गदा बज्र लै बैरिहिं मारो। महाराज प्रभु दास उबारो॥
ॐकार हुंकार महाप्रभु धावो। बज्र गदा हनु विलम्ब न लावो॥
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमन्त कपीसा। ॐ हुं हुं हुं हनु अरि उर शीशा॥
सत्य होउ हरि शपथ पायके। रामदूत धरु मारु धाय के॥
जय जय जय हनुमन्त अगाधा। दु:ख पावत जन केहि अपराधा॥
पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत कछु दास तुम्हारा॥
वन उपवन मग गिरि गृह माहीं।हीं तुमरे बल हम डरपत नाहीं॥हीं
पाय परौं कर जोरि मनावों।वों यह अवसर अब केहि गोहरावों॥वों
जय अंजनि कुमार बलवन्ता। शंकर सुवन धीर हनुमन्ता॥
बदन कराल काल कुल घालक। राम सहाय सदा प्रतिपालक॥
भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल काल मारीमर॥
इन्हें मारु तोहि शपथ राम की। राखु नाथ मरजाद नाम की॥
जनकसुता हरि दास कहावो। ताकी शपथ विलम्ब न लावो॥
जय जय जय धुनि होत अकाशा। सुमिरत होत दुसह दु:ख नाशा॥
चरण शरण करि जोरि मनावों।वों यहि अवसर अब केहि गोहरावों॥
अपने जन को तुरत उबारो। सुमिरत होय आनन्द हमारो॥
यहि बजरंग बाण जेहि मारो। ताहि कहो फिर कौन उबारो॥
पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की॥
यह बजरंग बाण जो जापै। तेहि ते भूत प्रेत सब कांपे॥
धूप देय अरु जपै हमेशा। ताके तन नहिं रहे कलेशा॥
॥दोहा॥
प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै, सदा धरै उर ध्यान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करै हनुमान॥
ध्यान धरत पुलकित हिय होई। सुख उपजत दुः ख दुर्मति खोई॥
कामधेनु तुम सुर तरु छाया। निराकार की अद्भु त माया॥
तुम्हरी शरण गहै जो कोई। तरै सकल संकट सों सोई॥
सरस्वती लक्ष्मी तुम काली। दिपै तुम्हारी ज्योति निराली॥
तुम्हरी महिमा पार न पावैं। जो शारद शत मुख गुन गावैं॥
चार वेद की मात पुनीता। तुम ब्रह्माणी गौरी सीता॥
महामन्त्र जितने जग माहीं।हीं कोउ गायत्री सम नाहीं॥हीं
सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै। आलस पाप अविद्या नासै॥
सृष्टि बीज जग जननि भवानी। कालरात्रि वरदा कल्याणी॥
ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते। तुम सों पावें सुरता तेते॥
तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे। जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे॥
महिमा अपरम्पार तुम्हारी। जय जय जय त्रिपदा भयहारी॥
पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना। तुम सम अधिक न जगमे आना॥
तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा। तुमहिं पाय कछु रहै न कलेशा॥
जानत तुमहिं तुमहिं व्है जाई। पारस परसि कुधातु सुहाई॥
तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई। माता तुम सब ठौर समाई॥
ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घनेरे। सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे॥
सकल सृष्टि की प्राण विधाता। पालक पोषक नाशक त्राता॥
मातेश्वरी दया व्रत धारी। तुम सन तरे पातकी भारी॥
जापर कृपा तुम्हारी होई। तापर कृपा करें सब कोई॥
मन्द बुद्धि ते बुधि बल पावें। रोगी रोग रहित हो जावें॥
दरिद्र मिटै कटै सब पीरा। नाशै दुः ख हरै भव भीरा॥
गृह क्लेश चित चिन्ता भारी। नासै गायत्री भय हारी॥
सन्तति हीन सुसन्तति पावें। सुख संपति युत मोद मनावें॥
भूत पिशाच सबै भय खावें। यम के दूत निकट नहिं आवें॥
जो सधवा सुमिरें चित लाई। अछत सुहाग सदा सुखदाई॥
घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी। विधवा रहें सत्य व्रत धारी॥
जयति जयति जगदम्ब भवानी। तुम सम ओर दयालु न दानी॥
जो सतगुरु सो दीक्षा पावे। सो साधन को सफल बनावे॥
सुमिरन करे सुरूचि बडभागी। लहै मनोरथ गृही विरागी॥
अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता। सब समर्थ गायत्री माता॥
ऋषि मुनि यती तपस्वी योगी। आरत अर्थी चिन्तित भोगी॥
जो जो शरण तुम्हारी आवें। सो सो मन वांछित फल पावें॥
बल बुधि विद्या शील स्वभाउ। धन वैभव यश तेज उछाउ॥
सकल बढें उपजें सुख नाना। जे यह पाठ करै धरि ध्याना॥
॥दोहा॥
यह चालीसा भक्ति युत पाठ करै जो कोई।
तापर कृपा प्रसन्नता गायत्री की होय॥
॥दोहा॥
जनक जननि पद कमल रज, निज मस्तक पर धारि।
बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि॥
पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु।
रामसागर के पाप को, मातु तुही अब हन्तु॥
॥चौपाई॥
जय श्री सकल बुद्धि बलरासी। जय सर्वज्ञ अमर अविनासी॥
जय जय जय वीणाकर धारी। करती सदा सुहंस सवारी॥
रूप चतुर्भुजधारी माता। सकल विश्व अन्दर विख्याता॥
जग में पाप बुद्धि जब होती। जबहि धर्म की फीकी ज्योती॥
तबहि मातु ले निज अवतारा। पाप हीन करती महि तारा॥
बाल्मीकि जी थे हत्यारा। तव प्रसाद जानै संसारा॥
रामायण जो रचे बनाई। आदि कवी की पदवी पाई॥
कालिदास जो भये विख्याता। तेरी कृपा दृष्टि से माता॥
तुलसी सूर आदि विद्धाना। भये और जो ज्ञानी नाना॥
तिन्हहिं न और रहेउ अवलम्बा। केवल कृपा आपकी अम्बा॥
करहु कृपा सोइ मातु भवानी। दुखित दीन निज दासहि जानी॥
पुत्र करै अपराध बहूता। तेहि न धरइ चित सुन्दर माता॥
राखु लाज जननी अब मेरी। विनय करूं बहु भांति घनेरी॥
मैं अनाथ तेरी अवलंबा। कृपा करउ जय जय जगदंबा॥
मधु कैटभ जो अति बलवाना। बाहुयुद्ध विष्णू ते ठाना॥
समर हजार पांच में घोरा। फिर भी मुख उनसे नहिं मोरा॥
मातु सहाय भई तेहि काला। बुद्धि विपरीत करी खलहाला॥
तेहि ते मृत्यु भई खल केरी। पुरवहु मातु मनोरथ मेरी॥
चंड मुण्ड जो थे विख्याता। छण महुं संहारेउ तेहि माता॥
रक्तबीज से समरथ पापी। सुर-मुनि हृदय धरा सब कांपी॥
काटेउ सिर जिम कदली खम्बा। बार बार बिनवउं जगदंबा॥
जग प्रसिद्ध जो शुंभ निशुंभा। छिन में बधे ताहि तू अम्बा॥
भरत-मातु बुधि फेरेउ जाई। रामचंद्र बनवास कराई॥
एहि विधि रावन वध तुम कीन्हा। सुर नर मुनि सब कहुं सुख दीन्हा॥
को समरथ तव यश गुन गाना। निगम अनादि अनंत बखाना॥
विष्णु रूद्र अज सकहिं न मारी। जिनकी हो तुम रक्षाकारी॥
रक्त दन्तिका और शताक्षी। नाम अपार है दानव भक्षी॥
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा। दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा॥
दुर्ग आदि हरनी तू माता। कृपा करहु जब जब सुखदाता॥
नृप कोपित जो मारन चाहै। कानन में घेरे मृग नाहै॥
सागर मध्य पोत के भंगे। अति तूफान नहिं कोऊ संगे॥
भूत प्रेत बाधा या दुः ख में। हो दरिद्र अथवा संकट में॥
नाम जपे मंगल सब होई। संशय इसमें करइ न कोई॥
पुत्रहीन जो आतुर भाई। सबै छांड़ि पूजें एहि माई॥
करै पाठ नित यह चालीसा। होय पुत्र सुन्दर गुण ईसा॥
धूपादिक नैवेद्य चढावै। संकट रहित अवश्य हो जावै॥
भक्ति मातु की करै हमेशा। निकट न आवै ताहि कलेशा॥
बंदी पाठ करें शत बारा। बंदी पाश दूर हो सारा॥
करहु कृपा भवमुक्ति भवानी। मो कहं दास सदा निज जानी॥
॥दोहा॥
माता सूरज कान्ति तव, अंधकार मम रूप।
डूबन ते रक्षा करहु, परूं न मैं भव-कूप॥
बल बुद्धि विद्या देहुं मोहि, सुनहु सरस्वति मातु।
अधम रामसागरहिं तुम, आश्रय देउ पुनातु॥
॥दोहा॥
जय गणपति सदगुण सदन, कविवर बदन कृपाल।
विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल॥
॥चौपाई॥
जय जय जय गणपति गणराजू। मंगल भरण करण शुभः काजू॥
जै गजबदन सदन सुखदाता। विश्व विनायका बुद्धि विधाता॥
वक्र तुण्ड शुची शुण्ड सुहावना। तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥
राजत मणि मुक्तन उर माला। स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥
पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं। मोदक भोग सुगन्धित फूलं॥
सुन्दर पीताम्बर तन साजित। चरण पादुका मुनि मन राजित॥
धनि शिव सुवन षडानन भ्राता। गौरी लालन विश्व-विख्याता॥
ऋद्धि-सिद्धि तव चंवर सुधारे। मुषक वाहन सोहत द्वारे॥
कहौ जन्म शुभ कथा तुम्हारी। अति शुची पावन मंगलकारी॥
एक समय गिरिराज कुमारी। पुत्र हेतु तप कीन्हा भारी॥
भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा। तब पहुंच्यो तुम धरी द्विज रूपा॥
अतिथि जानी के गौरी सुखारी। बहुविधि सेवा करी तुम्हारी॥
अति प्रसन्न हवै तुम वर दीन्हा। मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा॥
मिलहि पुत्र तुहि, बुद्धि विशाला। बिना गर्भ धारण यहि काला॥
गणनायक गुण ज्ञान निधाना। पूजित प्रथम रूप भगवाना॥
अस कही अन्तर्धान रूप हवै। पालना पर बालक स्वरूप हवै॥
गिरिजा कछु मन भेद बढायो। उत्सव मोर, न शनि तुही भायो॥
कहत लगे शनि, मन सकुचाई। का करिहौ, शिशु मोहि दिखाई॥
नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ। शनि सों बालक देखन कहयऊ॥
पदतहिं शनि दृग कोण प्रकाशा। बालक सिर उड़ि गयो अकाशा॥
गिरिजा गिरी विकल हवै धरणी। सो दुः ख दशा गयो नहीं वरणी॥
हाहाकार मच्यौ कैलाशा। शनि कीन्हों लखि सुत को नाशा॥
तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो। काटी चक्र सो गज सिर लाये॥
बालक के धड़ ऊपर धारयो। प्राण मन्त्र पढ़ि शंकर डारयो॥
नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे। प्रथम पूज्य बुद्धि निधि, वर दीन्हे॥
बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा। पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा॥
चले षडानन, भरमि भुलाई। रचे बैठ तुम बुद्धि उपाई॥
चरण मातु-पितु के धर लीन्हें। तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें॥
धनि गणेश कही शिव हिये हरषे। नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे॥
तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई। शेष सहसमुख सके न गाई॥
मैं मतिहीन मलीन दुखारी। करहूं कौन विधि विनय तुम्हारी॥
भजत रामसुन्दर प्रभुदासा। जग प्रयाग, ककरा, दुर्वासा॥
अब प्रभु दया दीना पर कीजै। अपनी शक्ति भक्ति कुछ दीजै॥
॥दोहा॥
श्री गणेश यह चालीसा, पाठ करै कर ध्यान।
नित नव मंगल गृह बसै, लहे जगत सन्मान॥
सम्बन्ध अपने सहस्त्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश।
पूरण चालीसा भयो, मंगल मूर्ती गणेश॥